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  1. Home > Literature > नाट्यशास्त्र (खण्ड-1)
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नाट्यशास्त्र (खण्ड-1)

नाट्यशास्त्र (खण्ड-1)

By :- Rewaprasad Dwivedi

Price:
 2400     $ 60
 1920
Sale Price:
     $ 48
QTY:
  • Available: In Stock

Type: Hindi

Pages: xii+lxiv+906

ISBN-13: 978-81-7305-290-3

Place: New Delhi

Edition: 1st

Publisher: ARYAN BOOKS INTERNATIONAL

Size: 19cm x 25cm

Product Year: 2005

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  • Book Description
  • Table Of Content
  • Authors Details


भरतमुनि के नाट्यशास्त्रा में १-३६ अध्याय हैं। इनमें अध्याय  १-३, ६, ७, १३-२७, ३५, ३६ काव्यलक्षणखण्ड कहे गए हैं तथा शेष्ष ४, ५, ८-१२, २४-३४  हैं संगीतलक्षणखण्ड । प्रस्तुत ग्रन्थ काव्यलक्षणखण्ड है। मूल नाट्यशास्त्रा, उसका अनुवाद तथा बड़ौदा संस्करण की २५७ कारिकाएँ प्रक्षिप्त रूप में दी गयी हैं। मूल कारिकाएँ भी दो तीन स्थानों पर संशोध्ति रूप में दी गयी हैं। अभिनवगुप्त की आवश्यक टिप्पणियाँ भी टिप्पणी में दे दी गयी हैं, यद्यपि इनकी अनेक मान्यताओं से अनुवादक सहमत नहीं है। हिन्दी अनुवाद मानक हिन्दी में किया गया है। नाट्यशास्त्रा की १८वीं सदी तक सुदीर्घ परम्परा विभिन्न ग्रन्थों में सुलभ है। उसका यथास्थान उपयोग किया गया है।
 प्रस्तुत अध्ययन से छन कर निकले संस्कृत साहित्यशास्त्रा के विभिन्न नए तथ्यों का भी यहाँ प्रामाणिक व्यौरा सुलभ है। सम्पादक ने सावधनी बरतते हुए परवर्ती विकास से पूर्ववर्ती स्थापनाओं को अभिभूत नहीं होने दिया है। साहित्यशास्त्रा का आगम हहमागम है और ‘अहम्’ तथा ‘अलम्’ हैं ब्रह्म के नाम, फ्रफलतः अलटार को काव्य की आत्मा कहा जा सकता है। ‘भ + र + त’ ;भाव,राग/रस, तालद्ध, भरत अकादमी, भरतवंश, नाट्यागम का अनुपालन करने वाला रग्कर्मी मानववंश इत्यादि उपलब्ध्यिाँ चैकाने वाली उपलब्ध्यिाँ हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कथन है कि भरत कभी बासी नहीं होते, अतः उनकी देशनाएँ नित्य प्रासग्कि हैं। आचार्यों को स्थितिकाल लगभग वही माना गया है जो म. म. पी. वी. काणे ने निश्चित किया है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्रा का यह सर्वप्रथम सम्पादन है।

 




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१९७८  में भारतीय राष्ट्र के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपतिसम्मान (The Certificate of Honour) १९९१ में ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार,  १९९७ में ‘वाचस्पति पुरस्कार’ तथा  १९९९  में संस्कृत के सर्वोच्च पुरस्कार ‘श्रीवाणी अलंकरण’ से अलंकृत आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी साहित्यशास्त्र के प्रसि६ आचार्य हैं। वे काशीहिन्दूविश्वविद्यालय के साहित्य विभाग मे १९७०से  १९९५ तक यशस्वी आचार्य पद पर कार्यरत रहे हैं और अभी भी वे वहीं इमेरिटसप्रोफ्रफ़ेसर (सम्मानित आचार्य) हैं।
 ‘काव्यालटारकारिका’ ( १९७७), ‘नाटड्ढानुशासनम्’  १ से  ५ खण्ड ( १९९६), ‘साहित्यशारीरकम्’ (१९९८) और ‘अलं ब्रह्म’ (२००४) इनकी भारतीय साहित्यशास्त्र को नई और महत्त्वपूर्ण देन हैं।

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